Kuno Sheopur: कभी कुपोषण के लिए बदनाम था, अब रिसोर्ट खुले, आदिवासी बने युवा वेटर और गाइड – Kuno Cheetah Lives of Sahariya tribals are changing due to arrival of Cheetah in sheopur loksabha election


कूनो पतझड़ वन कहलाता है। यहां जितने नीरस वन दिखाई दे रहे हैं उतने ही लोकसभा चुनाव लेकिन स्थानीय मुद्दों पर आदिवासी समाज मुखर होकर बात करता है। पिछले लोकसभा चुनाव में इस क्षेत्र से अधिकांश आदिवासी वोट कांग्रेस को गए थे इस बार मामला इतना सीधा नहीं है

By Virendra Tiwari

Publish Date: Sun, 21 Apr 2024 04:00 AM (IST)

Updated Date: Sun, 21 Apr 2024 03:18 PM (IST)

चीतों की वजह से बदल रही सहरिया आदिवासियों की जिंदगी

HighLights

  1. चीतों की वजह से बदल रही सहरिया आदिवासियों की जिंदगी
  2. कूनो राष्ट्रीय उद्यान से लगे सहरिया जनजाति के लिए आरक्षित
  3. कभी कुपोषण के लिए बदनाम था, अब रिसोर्ट खुले

वीरेंद्र तिवारी, नईदुनिया श्योपुर। 75 साल बाद भारत में लाए गए चीतों ने क्या बदला.. कहने को कह सकते हैं कुछ नहीं, लेकिन जमीनी हकीकत नकारात्मक बिलकुल नहीं है, कम से कम उस क्षेत्र की जहां चीतों का बसेरा है। देश की अति पिछड़ी विशिष्ट जनजाति सहरिया के कारण पांचवीं अनुसूची में शामिल श्योपुर जिले के कराहल ब्लाक का नाम पहले कुपोषण और पेयजल समस्या का पर्याय था। अब यह भारत में चीता के घर के रूप में जाना जाता है।

कूनो पतझड़ वन कहलाता है। यहां जितने नीरस वन दिखाई दे रहे हैं उतने ही लोकसभा चुनाव लेकिन स्थानीय मुद्दों पर आदिवासी समाज मुखर होकर बात करता है। पिछले लोकसभा चुनाव में इस क्षेत्र से अधिकांश आदिवासी वोट कांग्रेस को गए थे इस बार मामला इतना सीधा नहीं है उसके दो कारण है एक तो चीता प्रोजेक्ट के कारण हो रहा स्थानीय विकास और दूसरा केंद्रीय योजनाओं का आदिवासियों को मिल रहा लाभ।

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सड़कें हुई पक्कीं

कराहल ब्लाक के सेसईपुरा कस्बे से होते हुए टिकटौली गांव के द्वार से ही कूनो नेशनल पार्क में सफारी के लिए पर्यटक प्रवेश करते हैं। सेसईपुरा से कूनो के गेट तक के 15 किमी के सफर में मोरावन, टिकटौली सहित छोटे-छोटे गांव आते हैं। पहले रास्ता कच्चा हुआ करता था लेकिन डेढ़ साल पहले पीएम नरेन्द्र मोदी जब चीतों को यहां छोड़ने पहुंचे तब यहां सड़क भी बन गई। इसके कारण कूनो पार्क के अलावा इन गांवों तक पहुंचना भी आसान हो गया है। पक्की सड़क पर कुछ कारें भी दिखाई देती हैं। मोरावन गांव में कच्चे घरों के बीच शानदार रिसोर्ट दिखाई दिया ‘द पालपुर फोर्ट रिसार्ट’। थोड़ी दूरी पर ही नदी किनारे कूनो जंगल रिसार्ट बना हुआ है। दोनों ही रूम रेंट के मामले में महानगरों को पीछे छोड़ रहे हैं।

पालपुर रिसार्ट मैनेजर महेश शर्मा से सपाट सवाल पूछा- चीतों के आने से यहां कुछ बदला है या नहीं? जवाब आया- बहुत बदला है। इस रिसार्ट में माली, वेटर से लेकर अधिकांश कर्मचारी इन्हीं गांवों के युवा ही हैं जिन्हें प्रशिक्षण दिया गया है। किसी ट्रेंड वेटर की तरह आदिवासी युवा पहले पानी और फिर चाय लेकर पहुंचा।

महेश कहते हैं- बड़े शहरों के लोग आकर चूल्हे पर तैयार भोजन की मांग करते हैं तो आसपास गांव की ही आदिवासी महिलाओं को आन काल बुलाया जाता है। सफारी के दौरान फिलहाल चीता देखने नहीं मिल रहा इसलिए अभी उतना बूम नहीं है, लेकिन अक्टूबर से सीजन आएगा। टिकलौटी गेट की ओर बढ़े तो देखा कि आवागमन बढ़ा तो गांव के आदिवासी युवाओं ने स्वरोजगार की राह पकड़ ली है।

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सड़क किनारे छोटी-छोटी दुकानें खोलकर उसमें ब्रांडेंड पानी, शीतय पेय और पर्यटकों के उपयोगी सामान रख लिए हैं। गांव में घरों के सामने सड़क के नीचे बाहर निकली नीली पाइप लाइन दिखाई दे रही है, यह केंद्र की नल-जल योजना के पहुंचने की गवाही देती है। हालांकि टंकी निर्माण का कार्य चल रहा है इसलिए अभी सप्लाई नहीं है। वायरलेस आपरेटर, चीता ट्रैकिंग टीम, गाइड के रूप में करीब 100 स्थानीय युवक काम कर रहे हैं।

गांव मोरावन के रामेश्वर गुर्जर ने कुछ समय पहले ही सफारी के लिए जिप्सी खरीदी है। रामेश्वर बताते हैं ऐसे दस लोगों ने जिप्सी खरीद ली हैं। कमाई होती है? निराश भाव से कहते हैं चीता सफारी शुरू नहीं हो पाई है। अभी पर्यटकों को तेंदुआ, चिंकारा, भालू,चीतल, सांभर ही देखने को मिलता है इसलिए पर्यटक कम आ रहे हैं।

कूनो के अधिकारी कहते हैं कि फिलहाल हमारा फोकस चीतों को बचाने पर है। उनकी संख्या 26 पहुंच गई है। 20 हजार की जमीन 20 लाख में भी नहीं मिलेगी- सेसईपुरा पर चाय-पानी की दुकान पर कुछ आदिवासी युवा और बुजुर्ग बैठे हैं। टिकटौली सरपंच धनीराम कहते हैं अच्छी बात यह हुई कि हमारे घर पक्के हो गए,हर महीने राशन भी मिल जाता है। अब बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

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कभी पलायन बंद होगा? बोले -नहीं क्योंकि नेशनल पार्क के कारण खेती की जमीन है नहीं तो दूसरे जिलों में एक-माह के लिए काम करने जाना ही होता है। दुकान संचालक केशव शर्मा कहते हैं आसपास की जो जमीन 20 हजार बीघा मिलती थी अब 20 लाख में भी नहीं मिल रही। सारी जमीन निवेशकों ने खरीद ली है। कुछ शिकायतों के साथ ही केंद्रीय योजनाओं एवं विकास कार्यों का संतोष भी दिखाई दिया।



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